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      प्रथाओं में फंसकर अपना विकास रोकना ये गलत है या सही?

         प्राचीन समय में हमारा व्यवसाय खेती बाड़ी था। और ब्राम्हणों का पूजन पाठ। उन्होंने तो ये प्रथाएं कब की तोड़ दी हैं, क्योंकि वे तो सभी व्यवसाय करते हैं। उन्होंने प्रथाओं को दूर करके अपना विकास कर लिया। लेकिन हम लोग प्रथाओं में फंसकर पीछे रह गए। और अभी भी प्रथाओं में फंसे हैं।

          मुझसे जो रिश्तेदार कहते हैं कि, तुम्हें ब्राह्मणों से पूजन कराने में क्या दिक्कत है? तो उनसे मेरा सिर्फ इतना कहना है कि जब ब्राह्मण केवल पुस्तैनी पूजन पाठ का काम करेगा। और इसके अलावा कोई भी अन्य काम-धंधे ना करने की पाबंदी लगा दें? अगर आप लगा सकते हैं? तो फिर मुझे भी कोई दिक्कत नहीं है।

          अगर पाबंदी नहीं लगा सकते? तो फिर मुझ पर क्यों पाबंदियां लगा रहे हो? फिर मुझसे (अपनो से) ही दोहरा व्यवहार (दोगलापन) क्यों करते हो?

         वे विकास के नाम पर प्रथाओं की ऐसी तैसी कर सकते हैं। लेकिन हम नहीं? क्यों?? 

          मुझे द्वेष अपनी समाज से है, लेकिन समाज की परवाह नहीं है। लेकिन रिश्तेदारों की परवाह है, इसलिए कृपया कर आप लोग तो समझिए। मेरे परिवार वाले तो समझ गये हैं, क्योंकि अब ये कृपा वहीं से आ रही है।

     ब्राह्मण गुरुकुल में ब्राह्मण जाति को ही क्यों पढ़ते हैं। और जातियों को उनके गुरुकुल में अध्ययन करने क्यों नहीं मिलता? और हमारे स्कूलों में वे पढ़ कर डाक्टर, इंजीनियर बन जाते हैं।

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